श्रंगार - प्रेम >> आँख की किरकिरी आँख की किरकिरीरबीन्द्रनाथ टैगोर
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रोचक उपन्यास....
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
रवीन्द्रनाथ एक गीत हैं, रंग हैं और हैं एक असमाप्त कहानी। बांग्ला में लिखने पर भी वे किसी प्रांत और भाषा के रचनाकार नहीं हैं, बल्कि समय की चिंता में मनुष्य को केन्द्र में रखकर विचार करने वाले विचारक भी हैं। "वसुधैव कुटुम्बकम्" उनके लिए नारा नहीं आदर्श था। केवल "गीतांजलि" से यह भ्रम भी हुआ कि वे केवल भक्त हैं, जबकि ऐसा है नहीं। दरअसल, ह्विटमैन की तरह उन्होंने ‘आत्म
साक्ष्य’ से ही अपनी रचनाधर्मिता को जोड़े रखा। इसीलिए वे मानते रहे कविता की
दुनिया में दृष्टा ही सृष्टा है ‘अपारे काव्य संसारे कविरेव
प्रजापति।’ हालांकि वे पारंपरिक दर्शन की बांसुरी के चितेरे हैं
फिर भी इसमें सुर सिर्फ रवीन्द्र के हैं। अपनी आस्था और शोध के सुर। कला उनके
लिए शाश्वत मूल्यों का संसार था।
दो शब्द
दो-दो राष्ट्रगानों के रचियिता रवीन्द्नाथ टैगोर राष्ट्रवाद के पारंपरिक
ढांचे के लेखक नहीं थे। वे वैश्विक समानता और एकांतिकार के पक्षधर थे।
ब्रह्म-समाजी होने के बावजूद उनका दर्शन एक अकेले व्यक्ति को समर्पित रहा।
चाहे उनकी ज्यादातर रचनाएँ बांग्ला में लिखी हुई हों, मगर उन्हें इस आधार
पर किसी भाषिक चौखटे में बाँधकर नहीं देखा जा सकता। न ही प्रांतवाद की
चुन्नट में कसा जाना चाहिए। वह एक ऐसे लोक कवि थे। एक ऐसे कलाकार जिनके
रंगों में शाश्वत प्रेम की गहरी अनुभूति है, एक ऐसा नाटककार जिसकी रंगमंच
पर सिर्फ ‘ट्रेज़डी’ ही जिंदा नहीं है, मनुष्य की
गहरी
जिजीविषा भी है। एक ऐसा कथाकार जो अपने आस-पास से कथालोक चुनता है, बुनता
है, सिर्फ इसलिए नहीं कि घनीभूत पीड़ा की आवृत्ति करे या उसे ही अनावृत्त
करे, बल्कि उस कथालोक में वह आदमी के अंतिम गंतव्य की तलाश भी करता है।
वर्तमान की गवेषणा, तर्क और स्थितियों के प्रति रवीद्रनाथ सदैव सजग रहे
हैं। इसी वजह से वह मानते रहे है कि सिर्फ आर्थिक उपलब्धियाँ और जैविक
जरूरतें मनुष्य को ठीक स्पंदन नहीं देते। मौलिक सुविधाओं के बाद मनुष्य को
चाहिए कि वह सोचे कि उसके बाद क्या है उत्पादन, उत्पाद और उपभोग की
निस्संगता के बाद भी ‘कुछ है जो पहुंच के पार है ?’
यही कारण
है कि रवीन्द्र क्षितिज आकांक्षा के लेखक हैं। इन तमाम आधारों से
रवीन्द्र, कीट्स और कालीदास के समकक्ष ठहरते हैं। उनके वर्षा गीत इस बात
के समर्थन में खड़े हैं। ‘प्रक्रिया’ और
व्यक्तिवाद’
में आस्था के कारण वह पारंपरिक सिलसिलों में परम्परावादी नहीं हैं। अपने
निबंध कला और परंपरा में वह कहते हैं।
‘कला कोई भड़कीला मकबरा नहीं, विगत के एकाकी वैभव पर गहन चिंतनशील-जीवन के जलूस को निवेदित, यथार्थ- चेतना है, भविष्य की तीर्थयात्रा पर निकली यथार्थ चेतना, भविष्य जो अतीत से उतना ही अलग है जितना बीज से पेड़। तीर्थों के तमाम बिखरे हुए संदर्भों के बावजूद रवीन्द्र साहित्य पुनरुत्थानवादी नहीं है। वे किसी खांचे में फिट नहीं बैठते। जैसे-
‘कला कोई भड़कीला मकबरा नहीं, विगत के एकाकी वैभव पर गहन चिंतनशील-जीवन के जलूस को निवेदित, यथार्थ- चेतना है, भविष्य की तीर्थयात्रा पर निकली यथार्थ चेतना, भविष्य जो अतीत से उतना ही अलग है जितना बीज से पेड़। तीर्थों के तमाम बिखरे हुए संदर्भों के बावजूद रवीन्द्र साहित्य पुनरुत्थानवादी नहीं है। वे किसी खांचे में फिट नहीं बैठते। जैसे-
‘भीड़ से अलग
अपना भाव जगत
टोहा है मैंने
चौराहे पर.....।’
अपना भाव जगत
टोहा है मैंने
चौराहे पर.....।’
चौराहे पर यूँ भी मनुष्य मुक्त भाव से रहता है। जिसे शापेनहावर व्यक्तिवाद
का संत्रास करता है। इसके परिष्कार का रवीन्द्रनाथ का तरीका अलग हो सकता
है, पर उनकी नियति अलग नहीं हो सकती, उन्हें चाहिए कि वे अपनी हर कृति में
उसी शाश्वत की गवेषणा करे, उसका स्पर्श अनुभव करे जो सबका नियति नियंता
टायनबी इसे रेशीरियलाइजेशन कहते हैं। समझा जा सकता है कि मार्क्य यदि
‘‘अतिरिक्त’’ का भौतिक स्वरूप
प्रस्तुत करते हैं।
तो रवीन्द्र आधिभौतिक। राबर्ट फ्रास्ट की तरह वह भी मानते हैं कि देवी
अतिरेक के स्पर्श से मनुष्य लैकिक यथार्थ के पार चला जाता है।
रवीन्द्र साहित्य पर, उनके मूल्यांकन पर और उनकी मनुष्य की अवधारणा पर काफी काम होना है। संभवतया इसलिए भी कि वैश्विक चेतना का इससे बड़ा कवि और कहीं है नहीं। नहीं डायमंड पाकेट बुक्स और उसके निदेशक श्री नरेन्द्र कुमार सदैव ही हिन्दी के आम पाठकों तक भारतीय भाषा के रचनाकारों को पहुंचाने में सक्रिय रहे हैं। यह सब भी इसी की कड़ी है।
रवीन्द्र साहित्य पर, उनके मूल्यांकन पर और उनकी मनुष्य की अवधारणा पर काफी काम होना है। संभवतया इसलिए भी कि वैश्विक चेतना का इससे बड़ा कवि और कहीं है नहीं। नहीं डायमंड पाकेट बुक्स और उसके निदेशक श्री नरेन्द्र कुमार सदैव ही हिन्दी के आम पाठकों तक भारतीय भाषा के रचनाकारों को पहुंचाने में सक्रिय रहे हैं। यह सब भी इसी की कड़ी है।
-प्रदीप पंडित
आँख की किरकिरी
विनोदिनी की मां हरिमती महेन्द्र की मां राजलक्ष्मी के पास जाकर जैसे धरने
पर बैठ गई। दोनों एक ही गाँव की रहने वाली थीं। बचपन में साथ ही खेली थीं।
राजलक्ष्मी महेन्द्र के पीछे पड़ गईं—‘‘बेटा महेन्द्र, इस गरीब की बिटिया का उद्धार करना ही पड़ेगा। सुना है, लड़की बड़ी सुन्दर है, फिर किसी मेम से लिखी-पढ़ी भी है। तुम लोगों की आजकल की जो रुचि है, उससे मिलेगी।’’
महेन्द्र बोला—‘‘मुझ जैसे आजकल के लड़के तो और भी बहुत से हैं, मां !’’
राजलक्ष्मी तुनककर बोली—‘‘तुझमें यही तो दोष है, तुझसे विवाह की चर्चा करना ही मुश्किल है। फौरन ही तरक करने लगते हो।’’
महेन्द्र ने कहा—‘‘मां, इसे छोड़कर भी दुनिया में बातों की कमी नहीं है, सो यह कोई वैसा दोष नहीं।’’
महेन्द्र के पिता उसके बचपन में ही चल बसे थे। मां से महेन्द्र का बरताव साधारण लोगों-सा न था। बाईस के लगभग उम्र हुई, तब एम.ए. पास करके डॉक्टरी पढ़ना शुरू किया, मगर इस उम्र में भी मां से रोज-रोज उसके रूठने-मचलने, जिद करने की आदत नहीं गई। कंगारू के बच्चे की तरह गर्भ से बाहर आकर भी उसके बाहरी थैलै में टंके रहने की उसे आदत हो गई है। मां के बिना आहार-विहार, आराम, विराम कुछ भी नहीं हो पाता।
अबकी बार जब मां विनोदिनी के लिए बुरी तरह उसके पीछे पड़ गई तो हारकर महेन्द्र बोला—‘‘अच्छा, एक बार लड़की को देख लेने दो !’’
लड़की देखने जाने का दिन आया तो कहा, वह बोला—‘‘देखकर भी क्या होगा ? विवाह मैं तुम्हें खुश करने के लिए कर रहा हूं, भली-बुरी का विचार ही बेकार है।’’
कथन में जरा क्रोध की आंच थी, मगर मां ने सोचा—‘शुभ-दृष्टि’ के समय जब मेरी पसन्द से महेन्द्र की पसन्द मिल जाएगी, तो उसका रुख स्वयं नर्म हो जाएगा। राजलक्ष्मी ने बेफिक्र होकर विवाह का दिन तय किया। दिन जैसे-जैसे करीब आने लगा, वैसे-वैसे महेन्द्र का मन उत्कंठित हो उठा और अंत में दो-चार दिन पहले ही वह कह बैठा—‘‘नहीं मां, यह मुझसे हर्गिज न होगा।’’
बचपन से महेन्द्र हर तरह की सुविधाएँ पाता रहा है। उसकी हरेक इच्छा पूर्ण हुई है, चाहे दैवयोग से, चाहे मां के लिए, इसलिए उसकी इच्छा का वेग उच्छृंखल है। कोई दबाव उसे बर्दाश्त नहीं होता। अपनी स्वीकृति और दूसरों के आग्रह ने उसे निहायत बेबस कर दिया है, इसीलिए विवाह के प्रस्ताव के प्रति नाहक ही उसकी वितृष्णा बहुत बढ़ गई और विवाह का दिन नजदीक आ गया तो उसने बेझिझक इन्कार कर दिया।
महेन्द्र का जिगरी देस्त था बिहारी, वह महेन्द्र को ‘भैया’ और उसकी मां को ‘मां’ कहा करता था। महेन्द्र की मां उसे स्टीमर के पीछे जुड़ी डोंगी—जैसा महेन्द्र का एक जरूरी भारवाही सामान-सा मानती थीं और वैसी ही उस पर ममता भी रखती थीं। वे बिहारी से बोलीं—‘‘बेटे, यह तो अब तुम्हें ही करना है, नहीं तो उस बेचारी लड़की...।’’
बिहारी ने हाथ जोड़कर कहा-‘मां, यह मुझसे न होगा। अच्छी न लगी कहकर जो मिठाई महेन्द्र छोड़ देता है, तुम्हारे कहने से वह मिठाई मैंने बहुत खाई है, मगर लड़की की बाबत मुझसे यह नहीं हो सकता।’’
राजलक्ष्मी ने सोचा-‘भला बिहारी विवाह करेगा उसे तो बस एक महेन्द्र की पड़ी है, बहू लाने का खयाल भी नहीं लाता मन में।’ यह सोचकर बिहारी के प्रति उनकी कृपा-मिश्रित ममता कुछ और बढ़ गई।
विनोदिनी के पिता कुछ खास धनी न थे, परन्तु अपनी एकलौती बेटी को मिशनरी मेम रखकर बड़े जतन से पढ़ाया-लिखाया था, काज-कार्य सिखलाया था। बेटी के विवाह की उम्र निकलती जा रही थी, मगर उन्हें होश न था। आखिरकार वे गुजर गए और बेचारी विधवा मां बेटी के विवाह के लिए परेशान, पास में रुपया-पैसा भी नहीं, लड़की की उम्र भी ज्यादा।
जब महेन्द्र और बिहारी ने विवाह से इन्कार कर दिया तो आखिरकार राजलक्ष्मी ने अपने मैके की तरफ के गांव के एक रिश्ते के भतीजे से विनोदिनी का विवाह करा दिया।
कुछ ही दिनों में वह विधवा हो गई। महेन्द्र ने हंसकर टिप्पणी की-‘‘गनीमत करो कि शादी नहीं की, बीवी विधवा हो जाती तो एक घड़ी भी टिकना मुहाल हो जाता।’’
कोई तीन साल बाद मां-बेटे में फिर एक बात हो रही थी।
‘‘बेटा, लोग तो मुझे ही कसूरवार ठहराते हैं।’’
‘‘क्यों भला, तुमने लोगों का क्या बिगाड़ा है ?’’
‘‘बहू के आने से बेटा पराया न हो जाए, मैं इसी डर से तेरी शादी नहीं करती-लोग यही कहा करते हैं।’’
महेन्द्र ने कहा-‘‘डर तो होना ही चाहिए। मैं मां होता तो जीते जी लड़के का विवाह न करता। लोगों की शिकायतें सुन लेता।’’
मां हंसकर बोली-‘‘सुनो, जरा बातें सुन लो इसकी।’’
महेन्द्र बोला-‘‘बहू तो आकर लड़के पर अपना अधिकार जमा लेती है। फिर इतना कष्ट उठाने वाली ऐसी ममतामयी मां अपने-आप दूर हो जाती है। तुम्हें यह चाहे अच्छा लगे, मुझे तो नहीं लगता।’’
राजलक्ष्मी ने मन ही मन खुश होकर हाल ही आई अपनी विधवा देवरानी से कहा-‘‘सुनो मंझली, जरा इसकी सुनो। कहीं बहू के आने से मां का साथ न छूट जाए, इसी डर से यह विवाह नहीं करना चाहता। ऐसी दुनिया से बाहर की बात भी सुनी है तुमने ?’’
चाची बोली-‘‘यह तो तुम्हारी ज्यादती है बेटे ! जब की जो बात हो, वही अच्छी लगती है। यह समय मां का दामन छोड़कर अब घर-गिरस्ती बसाने का है, अब नन्हे-नादानों जैसी हरकतें अच्छी नहीं लगतीं।’’
राजलक्ष्मी को उसकी यह बात अच्छी नहीं लगी और इसके उत्तर में उन्होंने जो कुछ कहा, वह सरल चाहे हो, शहद-सना न था। बोलीं-‘‘मेरा बेटा अगर और लड़कों की अपेक्षा अपनी मां को ज्यादा स्नेह करता है, तो तुम्हें अच्छा क्यों नहीं लगता है, मंझली बहू ? कोख का लड़का होता तो मर्म समझ में आता।’’
राजलक्ष्मी को लगा-‘निपूती सौभाग्य वाली सपूती से ईर्ष्या कर रही है।’
मंझली बहू ने कहा-‘‘तुमने बहू लाने का चर्चा चलाई। इसीलिए यह बात आई, वरना मुझे क्या हक है ?’’
राजलक्ष्मी बोलीं-‘‘मेरा बेटा अगर विवाह नहीं करता, तो तुम्हारी छाती क्यों फटती है ? ठीक है, लड़के को जैसे आज तक देख-भाल करती आई हूं, आइन्दा भी कर लूंगी। इसके लिए और किसी की मदद की जरूरत न होगी।’’
मंझली बहू आंसू बहाती वहां से चली गई। महेन्द्र को मन ही मन इससे चोट पहुंची। कॉलेज से कुछ पहले ही लौटकर वह अपने चाची के कमरे में दाखिल हुआ। वह खूब समझ रहा था कि चाची ने जो कुछ कहा था, उसमें स्नेह के सिवाय और कुछ न था और उसे यह भी पता था कि चाची के एक भांजी है, जिसके मां-पिता नहीं हैं और जो सन्तानहीन विधवा है, चाची किसी उपाय से उससे उसका विवाह कराकर उसे सदा के लिए अपने पास लाकर सुखी होना चाहती है। यद्यपि शादी करना उसे पसंद नहीं है, फिर भी चाची की यह आंतरिक इच्छा उसे स्वाभाविक और बड़ी करुण लगती है।
महेन्द्र कमरे में पहुंचा तो दिन ज्यादा नहीं रह गया था। चाची अन्नपूर्णा खिड़की पर माथा टेक उदास बैठी थीं। बगल के कमरे में खाना ढका रखा था, उन्होंने उसे छुआ भी न था।
बहुत थोड़े में ही महेन्द्र की आंखें भर आतीं। चाची को देखकर उसकी आंखें छलछला उठीं। करीब जाकर स्निग्ध स्वर में बोला-‘‘चाची !’’
अन्नपूर्णा ने जबरन हंसने की कोशिश की, कहा-‘‘आ बेटे, बैठ !’’
महेन्द्र बोला-‘‘भूख बुरी तरह लग रही है चाची, प्रसाद पाना चाहता हूं।’’
अन्नपूर्णा उसकी चालाकी ताड़ गई और अपने उमड़ते आंसुओं को मुश्किल से जब्त करके उसने खुद खाया और उसे खिलाया। महेन्द्र का जी करुणा से गीला था। चाची को दिलासा देने के विचार से वह अचानक ही बोल उठा-‘‘अच्छा चाची, तुमने अपनी भांजी की बात बताई थी। एक बार उसे दिखा सकती हो ?’’
कहकर महेन्द्र डर-सा गया।
अन्नपूर्णा हंसकर बोलीं-‘‘आखिर विवाह की इच्छा हो ही गई।’’
महेन्द्र हड़बड़ाया-‘‘नहीं-नहीं, अपने लिए नहीं-‘‘मैंने बिहारी को राजी किया है। लड़की देखने का कोई दिन तय कर दो !’’
अन्नपूर्णा बोलीं-‘‘अहा, उस बेचारी का क्या ऐसा भाग्य ! भला उसे बिहारी जैसा लड़का नसीब हो सकता है ?’’
महेन्द्र चाची के कमरे से निकला कि दरवाजे पर मां से भेंट हो गई। राजलक्ष्मी ने पूछा-‘‘क्यों रे, क्या राय-मशवरा चल रहा था ?’’
‘‘राय-मशवरा नहीं, पान लेने गया था।’’
‘‘तेरा पान तो तेरे कमरे में रखा है !’’
महेन्द्र ने कुछ नहीं कहा। चला गया।
राजलक्ष्मी अंदर गई और रोते रहने से अन्नपूर्णा की सूजी आंखें देखकर पल भर में बहुत कुछ सोच लिया। छूटते ही फुफकार छोड़ी-‘‘क्यों मंझली बहू, महेन्द्र के कान भर रही थी। है न ?’’
और बिना कुछ सुने उसी दम तेजी से निकल गई।
राजलक्ष्मी महेन्द्र के पीछे पड़ गईं—‘‘बेटा महेन्द्र, इस गरीब की बिटिया का उद्धार करना ही पड़ेगा। सुना है, लड़की बड़ी सुन्दर है, फिर किसी मेम से लिखी-पढ़ी भी है। तुम लोगों की आजकल की जो रुचि है, उससे मिलेगी।’’
महेन्द्र बोला—‘‘मुझ जैसे आजकल के लड़के तो और भी बहुत से हैं, मां !’’
राजलक्ष्मी तुनककर बोली—‘‘तुझमें यही तो दोष है, तुझसे विवाह की चर्चा करना ही मुश्किल है। फौरन ही तरक करने लगते हो।’’
महेन्द्र ने कहा—‘‘मां, इसे छोड़कर भी दुनिया में बातों की कमी नहीं है, सो यह कोई वैसा दोष नहीं।’’
महेन्द्र के पिता उसके बचपन में ही चल बसे थे। मां से महेन्द्र का बरताव साधारण लोगों-सा न था। बाईस के लगभग उम्र हुई, तब एम.ए. पास करके डॉक्टरी पढ़ना शुरू किया, मगर इस उम्र में भी मां से रोज-रोज उसके रूठने-मचलने, जिद करने की आदत नहीं गई। कंगारू के बच्चे की तरह गर्भ से बाहर आकर भी उसके बाहरी थैलै में टंके रहने की उसे आदत हो गई है। मां के बिना आहार-विहार, आराम, विराम कुछ भी नहीं हो पाता।
अबकी बार जब मां विनोदिनी के लिए बुरी तरह उसके पीछे पड़ गई तो हारकर महेन्द्र बोला—‘‘अच्छा, एक बार लड़की को देख लेने दो !’’
लड़की देखने जाने का दिन आया तो कहा, वह बोला—‘‘देखकर भी क्या होगा ? विवाह मैं तुम्हें खुश करने के लिए कर रहा हूं, भली-बुरी का विचार ही बेकार है।’’
कथन में जरा क्रोध की आंच थी, मगर मां ने सोचा—‘शुभ-दृष्टि’ के समय जब मेरी पसन्द से महेन्द्र की पसन्द मिल जाएगी, तो उसका रुख स्वयं नर्म हो जाएगा। राजलक्ष्मी ने बेफिक्र होकर विवाह का दिन तय किया। दिन जैसे-जैसे करीब आने लगा, वैसे-वैसे महेन्द्र का मन उत्कंठित हो उठा और अंत में दो-चार दिन पहले ही वह कह बैठा—‘‘नहीं मां, यह मुझसे हर्गिज न होगा।’’
बचपन से महेन्द्र हर तरह की सुविधाएँ पाता रहा है। उसकी हरेक इच्छा पूर्ण हुई है, चाहे दैवयोग से, चाहे मां के लिए, इसलिए उसकी इच्छा का वेग उच्छृंखल है। कोई दबाव उसे बर्दाश्त नहीं होता। अपनी स्वीकृति और दूसरों के आग्रह ने उसे निहायत बेबस कर दिया है, इसीलिए विवाह के प्रस्ताव के प्रति नाहक ही उसकी वितृष्णा बहुत बढ़ गई और विवाह का दिन नजदीक आ गया तो उसने बेझिझक इन्कार कर दिया।
महेन्द्र का जिगरी देस्त था बिहारी, वह महेन्द्र को ‘भैया’ और उसकी मां को ‘मां’ कहा करता था। महेन्द्र की मां उसे स्टीमर के पीछे जुड़ी डोंगी—जैसा महेन्द्र का एक जरूरी भारवाही सामान-सा मानती थीं और वैसी ही उस पर ममता भी रखती थीं। वे बिहारी से बोलीं—‘‘बेटे, यह तो अब तुम्हें ही करना है, नहीं तो उस बेचारी लड़की...।’’
बिहारी ने हाथ जोड़कर कहा-‘मां, यह मुझसे न होगा। अच्छी न लगी कहकर जो मिठाई महेन्द्र छोड़ देता है, तुम्हारे कहने से वह मिठाई मैंने बहुत खाई है, मगर लड़की की बाबत मुझसे यह नहीं हो सकता।’’
राजलक्ष्मी ने सोचा-‘भला बिहारी विवाह करेगा उसे तो बस एक महेन्द्र की पड़ी है, बहू लाने का खयाल भी नहीं लाता मन में।’ यह सोचकर बिहारी के प्रति उनकी कृपा-मिश्रित ममता कुछ और बढ़ गई।
विनोदिनी के पिता कुछ खास धनी न थे, परन्तु अपनी एकलौती बेटी को मिशनरी मेम रखकर बड़े जतन से पढ़ाया-लिखाया था, काज-कार्य सिखलाया था। बेटी के विवाह की उम्र निकलती जा रही थी, मगर उन्हें होश न था। आखिरकार वे गुजर गए और बेचारी विधवा मां बेटी के विवाह के लिए परेशान, पास में रुपया-पैसा भी नहीं, लड़की की उम्र भी ज्यादा।
जब महेन्द्र और बिहारी ने विवाह से इन्कार कर दिया तो आखिरकार राजलक्ष्मी ने अपने मैके की तरफ के गांव के एक रिश्ते के भतीजे से विनोदिनी का विवाह करा दिया।
कुछ ही दिनों में वह विधवा हो गई। महेन्द्र ने हंसकर टिप्पणी की-‘‘गनीमत करो कि शादी नहीं की, बीवी विधवा हो जाती तो एक घड़ी भी टिकना मुहाल हो जाता।’’
कोई तीन साल बाद मां-बेटे में फिर एक बात हो रही थी।
‘‘बेटा, लोग तो मुझे ही कसूरवार ठहराते हैं।’’
‘‘क्यों भला, तुमने लोगों का क्या बिगाड़ा है ?’’
‘‘बहू के आने से बेटा पराया न हो जाए, मैं इसी डर से तेरी शादी नहीं करती-लोग यही कहा करते हैं।’’
महेन्द्र ने कहा-‘‘डर तो होना ही चाहिए। मैं मां होता तो जीते जी लड़के का विवाह न करता। लोगों की शिकायतें सुन लेता।’’
मां हंसकर बोली-‘‘सुनो, जरा बातें सुन लो इसकी।’’
महेन्द्र बोला-‘‘बहू तो आकर लड़के पर अपना अधिकार जमा लेती है। फिर इतना कष्ट उठाने वाली ऐसी ममतामयी मां अपने-आप दूर हो जाती है। तुम्हें यह चाहे अच्छा लगे, मुझे तो नहीं लगता।’’
राजलक्ष्मी ने मन ही मन खुश होकर हाल ही आई अपनी विधवा देवरानी से कहा-‘‘सुनो मंझली, जरा इसकी सुनो। कहीं बहू के आने से मां का साथ न छूट जाए, इसी डर से यह विवाह नहीं करना चाहता। ऐसी दुनिया से बाहर की बात भी सुनी है तुमने ?’’
चाची बोली-‘‘यह तो तुम्हारी ज्यादती है बेटे ! जब की जो बात हो, वही अच्छी लगती है। यह समय मां का दामन छोड़कर अब घर-गिरस्ती बसाने का है, अब नन्हे-नादानों जैसी हरकतें अच्छी नहीं लगतीं।’’
राजलक्ष्मी को उसकी यह बात अच्छी नहीं लगी और इसके उत्तर में उन्होंने जो कुछ कहा, वह सरल चाहे हो, शहद-सना न था। बोलीं-‘‘मेरा बेटा अगर और लड़कों की अपेक्षा अपनी मां को ज्यादा स्नेह करता है, तो तुम्हें अच्छा क्यों नहीं लगता है, मंझली बहू ? कोख का लड़का होता तो मर्म समझ में आता।’’
राजलक्ष्मी को लगा-‘निपूती सौभाग्य वाली सपूती से ईर्ष्या कर रही है।’
मंझली बहू ने कहा-‘‘तुमने बहू लाने का चर्चा चलाई। इसीलिए यह बात आई, वरना मुझे क्या हक है ?’’
राजलक्ष्मी बोलीं-‘‘मेरा बेटा अगर विवाह नहीं करता, तो तुम्हारी छाती क्यों फटती है ? ठीक है, लड़के को जैसे आज तक देख-भाल करती आई हूं, आइन्दा भी कर लूंगी। इसके लिए और किसी की मदद की जरूरत न होगी।’’
मंझली बहू आंसू बहाती वहां से चली गई। महेन्द्र को मन ही मन इससे चोट पहुंची। कॉलेज से कुछ पहले ही लौटकर वह अपने चाची के कमरे में दाखिल हुआ। वह खूब समझ रहा था कि चाची ने जो कुछ कहा था, उसमें स्नेह के सिवाय और कुछ न था और उसे यह भी पता था कि चाची के एक भांजी है, जिसके मां-पिता नहीं हैं और जो सन्तानहीन विधवा है, चाची किसी उपाय से उससे उसका विवाह कराकर उसे सदा के लिए अपने पास लाकर सुखी होना चाहती है। यद्यपि शादी करना उसे पसंद नहीं है, फिर भी चाची की यह आंतरिक इच्छा उसे स्वाभाविक और बड़ी करुण लगती है।
महेन्द्र कमरे में पहुंचा तो दिन ज्यादा नहीं रह गया था। चाची अन्नपूर्णा खिड़की पर माथा टेक उदास बैठी थीं। बगल के कमरे में खाना ढका रखा था, उन्होंने उसे छुआ भी न था।
बहुत थोड़े में ही महेन्द्र की आंखें भर आतीं। चाची को देखकर उसकी आंखें छलछला उठीं। करीब जाकर स्निग्ध स्वर में बोला-‘‘चाची !’’
अन्नपूर्णा ने जबरन हंसने की कोशिश की, कहा-‘‘आ बेटे, बैठ !’’
महेन्द्र बोला-‘‘भूख बुरी तरह लग रही है चाची, प्रसाद पाना चाहता हूं।’’
अन्नपूर्णा उसकी चालाकी ताड़ गई और अपने उमड़ते आंसुओं को मुश्किल से जब्त करके उसने खुद खाया और उसे खिलाया। महेन्द्र का जी करुणा से गीला था। चाची को दिलासा देने के विचार से वह अचानक ही बोल उठा-‘‘अच्छा चाची, तुमने अपनी भांजी की बात बताई थी। एक बार उसे दिखा सकती हो ?’’
कहकर महेन्द्र डर-सा गया।
अन्नपूर्णा हंसकर बोलीं-‘‘आखिर विवाह की इच्छा हो ही गई।’’
महेन्द्र हड़बड़ाया-‘‘नहीं-नहीं, अपने लिए नहीं-‘‘मैंने बिहारी को राजी किया है। लड़की देखने का कोई दिन तय कर दो !’’
अन्नपूर्णा बोलीं-‘‘अहा, उस बेचारी का क्या ऐसा भाग्य ! भला उसे बिहारी जैसा लड़का नसीब हो सकता है ?’’
महेन्द्र चाची के कमरे से निकला कि दरवाजे पर मां से भेंट हो गई। राजलक्ष्मी ने पूछा-‘‘क्यों रे, क्या राय-मशवरा चल रहा था ?’’
‘‘राय-मशवरा नहीं, पान लेने गया था।’’
‘‘तेरा पान तो तेरे कमरे में रखा है !’’
महेन्द्र ने कुछ नहीं कहा। चला गया।
राजलक्ष्मी अंदर गई और रोते रहने से अन्नपूर्णा की सूजी आंखें देखकर पल भर में बहुत कुछ सोच लिया। छूटते ही फुफकार छोड़ी-‘‘क्यों मंझली बहू, महेन्द्र के कान भर रही थी। है न ?’’
और बिना कुछ सुने उसी दम तेजी से निकल गई।
2
कन्या देखने की बात महेन्द्र लगभग भूल बैठा था पर अन्नपूर्णा नहीं भूली
थीं। उन्होंने लड़की के संरक्षक उसके बड़े चाचा को पत्र भेजा और एक दिन तय
करके लिख दिया। वे श्याम बाजार में रहते थे।
महेन्द्र को जब पता चला कि देखने का दिन पक्का हो गया है तो बोला-‘‘चाची, इतनी जल्दी क्यों की ? बिहारी से तो मैंने अभी जिक्र तक नहीं किया है।’’
अन्नपूर्णा बोलीं-‘‘ऐसा भी होता है भला ! अब अगर तुम लोग न जाओ तो वे क्या सोचेंगे ?’’
महेन्द्र ने बिहारी को बुलाकर सारी बातें बताईं और उसके ना-नुकर करने से पहले ही-‘‘चलो तो सही, लड़की न जंची तो तुम्हें मजबूर थोड़े ही किया जाएगा, इन्कार कर देना।’’
बिहारी बोला-‘‘यह मैं नहीं कर सकता। चाची की भांजी को देखने जाना है। देखकर मेरे मुंह से यह बात हरगिज न निकल सकेगी कि लड़की मुझे पसंद नहीं।’’
महेन्द्र ने कहा-‘‘फिर तो ठीक ही है।’’
बिहारी बोला-‘‘लेकिन तुम्हारी तरफ से यह ज्यादती हुई है, महेन्द्र भैया ! खुद तो हल्के हो जाएं और दूसरे के कंधे पर बोझ रख दें, यह उचित नहीं है। अब चाची का मन दुखाना मेरे लिए बहुत ही कठिन है।’’
महेन्द्र कुछ शर्मिन्दा और नाराज होकर बोला-‘‘आखिर इरादा क्या है तुम्हारा ?’’
बिहारी बोला-‘‘मेरे नाम पर जब तुमने उन्हें उम्मीद दिलाई तो मैं विवाह करूंगा। यह देखने जाने का ढोंग बेकार है।’’
बिहारी अन्नपूर्णा की देवी की भांति भक्ति करता था। आखिर अन्नपूर्णा ने खुद बिहारी को बुलवाकर कहा-‘‘ऐसा भी कहीं होता है, बेटे ? लड़की देखे बिना वही विवाह करोगे, यह हरगिज न होगा। लड़की पसंद न आए तो अपनी सम्मति तुम नहीं दे सकते, तुम्हें मेरी शपथ है। लड़की देखने अवश्य़ जाओ।’’
जाने के दिन कॉलेज से लौटकर महेन्द्र ने मां से कहा-‘‘जरा मेरा वह रेशमी कुरता और ढाका वाली धोती निकाल दो।’’
मां ने पूछा-‘‘क्यों, कहां जाना है ?’’
महेन्द्र बोला-‘‘काम है, तुम ला दो, फिर बताऊंगा।’’
महेन्द्र थोड़ा संवरे बिना न रह सका। दूसरे के लिए ही क्यों न हो, कन्या देखने की बात से ही यौवन-धर्म स्वयं बाल संवार लेता है, चादर में थोड़ी खुशबू मल लेता है।
दोनों दोस्त लड़की देखने निकल पड़े।
लड़की के बड़े चाचा अनुकूल बाबू ने अपनी कमाई से अपना बाग वाला तिमंजिला मकान मुहल्ले में सबसे ऊंचा बना रखा है।
गरीब भाई की मां-बाप-विहीना बेटी को उन्होंने अपने ही यहां रखा है। उसकी मौसी अन्नपूर्णा ने कहा था, मेरे पास रहने दो। इससे खर्च की कमी जरूर होती, लेकिन समाज में गौरव कम हो जाने के डर से अनुकूल बाबू राजी न हुए। यहां तक कि भेंट-मुलाकात के लिए भी कभी उसे मौसी के यहां नहीं जाने देते थे। अपनी मर्यादा के बारे में इतने ही सख्त थे वे।
लड़की के विवाह की चिंता का समय आया, लेकिन इन दिनों विवाह के विषय में ‘यादृशी भावना यस्य सिद्धर्भवति तादृशी’ वाली बात लागू नहीं होती। चिंता के साथ-साथ लागत भी लगती। परन्तु दहेज की बात उठते ही अनुकूल बाबू कहते-‘मेरे भी तो अपनी लड़की है, अकेले मुझसे कितना करते बनेगा।’
इसी तरह दिन निकलते जा रहे थे। ऐसे में बन-संवरकर खुशबू बिखेरते हुए रंगभूमि में अपने दोस्त के साथ महेन्द्र ने प्रवेश किया।
चैत का महीना। सूरज अस्त होने को है। दुमंजिले का दक्षिणी बरामदा चिकने चीनी टाइलों का बना है, उसी के एक ओर दोनों मेहमानों के लिए फल-फलू, मिठाई से भरी चांदी की तश्तरियां रखी गईं, बर्फ के पानी-भरे गिलास रखे हैं। बिहारी के साथ महेन्द्र सकुचाते हुए खाने बैठा। नीचे माली पौधौं में पानी डाल रहा था और भीगी मिट्टी की सोंधी सुगन्ध लिए दक्खिनी हवा महेन्द्र की धप्-धप् धुली चादर के छोर को दुर्दाम किए दे रही थी। आस-पास के दरवाजे के झरोखों की ओट से कभी-कभी दबी हंसी, फुसफुसाहट, कभी-कभीगहनों की खनखनाहट।
खाना खत्म हो चुका तो अन्दर की तरफ देखते अनुकूल बाबू ने कहा-‘चुन्नी, पान तो ले आ, बेटी !’’
कुछ देर में संकोच से पीछे का दरवाजा खुला और संसार भर की लाज से सिमटी एक लड़की हाथ में पानदान लिए अनुकूल बाबू के पास आकर खड़ी हुई। अनुकूल बाबू बोले-‘‘शर्म काहे की बिटिया, पानदान उनके सामने रखो।’’
उसने झुककर कांपते हाथों से मेहमानों की बगल में पानदान रख दिया। बरामदे के पश्चिमी छोर से डूबते सूरज की रक्तिम आभा उसके लज्जित मुखड़े को मंडित कर गई। इसी मौके पर महेन्द्र ने कांपती हुई लड़की के करुण मुख की झलक देख ली।
बालिका जाने लगी। अनुकूल बाबू बोले-‘‘जरा ठहर जा, चुन्नी ! बिहारी बाबू, यह है छोटे भाई अपूर्व की लड़की, अपूर्व तो चल बसा, अब मेरे सिवाय इसका कोई नहीं।’’
और उन्होंने एक लम्बी उसांस ली। महेन्द्र के मन को दया की ठोकर लगी। उस अनाथ लड़की की तरफ उसने एक बार फिर देखा।
उसकी उम्र साफ-साफ कोई न बताता। सगे-संबंधी कहते, बारह-तेरह होगी।
यानी चौदह-पन्द्रह होने की संभावना ही ज्यादा थी। लेकिन चूंकि दया पर चल रही थी, इसलिए एक सहमे से डरे भाव ने उसके नवयौवन के आरंभ को जब्त सा कर रखा था।
महेन्द्र ने पूछा-‘‘तुम्हारा नाम ?’’
अनुकूल बाबू ने उत्साह दिया-‘‘बता बेटी, अपना नाम बता !’’
अपने अभ्यस्त आदेश-पालन के ढंग से झुककर उसने कहा-‘‘जी, मेरा नाम आशालता है।’’
आशा ! महेन्द्र को लगा, नाम बड़ा ही करुण और स्वर बड़ा कोमल है। अनाथा आशा ! दोनों मित्रों ने बाहर सड़क पर आकर गाड़ी छोड़ दी। महेन्द्र बोला-‘‘बिहारी, इस लड़की को तुम हर्गिज मत छोड़ो ?’’
बिहारी ने इसका कुछ साफ जवाब न दिया। बोला-‘‘इसे देखकर इसकी मौसी याद आ जाती है। वैसी ही भली होगी शायद !’’
महेन्द्र ने कहा-‘‘जो बोझा तुम्हारे कंधे पर लाद दिया, अब वह शायद वैसा भारी नहीं लग रहा है।’’
बिहारी ने कहा-‘‘नहीं, लगता है, ढो ले जाऊंगा।’’
महेन्द्र बोला-‘‘इतनी तकलीफ उठाने की जरूरत भी क्या है ? तुम्हारा यह भार न हो तो मैं ही उठा लूं। क्या खयाल है ?’’
बिहारी ने गम्भीर होकर महेन्द्र की तरफ देखा। बोला-‘‘क्या कहना चाहते हो ? अब भी ठीक-ठीक बता दो। यह शादी तुम कर लो तो चाची कहीं ज्यादा खुश होंगी-उन्हें उसे सदा पास रखने का मौका मिलेगा।’’
महेन्द्र बोला-‘‘पागल हो तुम ! ऐसा होना होता तो कब का हो चुका होता।’’
बिहारी ने कोई एतराज न किया। वह अपने घर चला गया और महेन्द्र भी सीधी राह छोड़कर घूमता-घामता बड़ी देर से घर पहुंचा।
मां पूरियां बना रही थीं। चाची अब तक भी अपनी भांजी के पास से लौटकर नहीं आई थीं।
महेन्द्र छत पर गया और चटाई बिछाकर लेट गया। कलकत्ता की ऊंची इमारतों की शीर्षों पर शुक्ला सप्तमी का अर्धचन्द्र अपनी अनोखी छठा बिखेर रहा था। मां जब खाने के लिए बुलाने आईं, तो महेन्द्र ने अलसाए स्वर में कहा-‘‘छोड़ो, अब उठने् को जी नहीं चाहता।’’
मां ने पूछा-‘‘तो यहीं ले आऊं ?’’
महेन्द्र बोला-‘‘आज नहीं खाऊंगा। मैं खाकर आया हूं।’’
मां ने पूछा-‘‘कहां खाने गया था ?’’
महेन्द्र बोला-‘‘वह लम्बी दास्तान है, फिर कभी सुनाऊंगा।’’
महेन्द्र के इस व्यवहार से अभिमानी मां बिना कुछ कहे ही लौटने लगी। इतने में अपने को जब्त करके महेन्द्र ने कहा-‘‘मां, अच्छा, मेरा खाना यहीं ले आओ !’’
मां ने कहा-‘‘भूख नहीं है तो रहने दो !’’
जरा देर तक इसी पर मां-बेटे का रूठना-मचलना चलता रहा और अन्त में महेन्द्र को भोजन करना पड़ा।
रात में महेन्द्र को न जाने क्यों अच्छी तरह नींद नहीं आई। सुहब तड़के ही वह बिहारी के घर जा पहुंचा। बोला-‘‘भई, मैंने खूब गौर किया है कि चाची की आंतरिक इच्छा यही है कि मैं ही उनकी भतीजी से विवाह करूं।’’
बिहारी बोला-‘‘इसके लिए नए सिरे से सोचने की तो कोई जरूरत न थी। यह इच्छा तो उन्होंने अनेक प्रकार से जाहिर की है।’’
महेन्द्र बोला-‘‘तभी तो कहता हूं, मैं अगर आशा से विवाह न करूं, तो उनके मन में इसका खेद रह जाएगा।’’
बिहारी बोला-‘‘हो सकता है !’’
‘‘मेरा खयाल है, यह मेरा ज्यादती होगी।’’ महेन्द्र ने कहा।
जरा अस्वाभाविक उत्साह से बिहारी ने कहा-‘‘ठीक तो है। इससे अच्छी बात क्या हो सकती है ? तुम तैयार हो जाओ तो कुछ रह ही नहीं जाता। लेकिन फर्ज का यह खयाल तुम्हारे दिमाग में कल ही आया होता तो अच्छा था।’’
महेन्द्र-‘‘एक दिन बाद ही आया, तो क्या बुरा हो गया ?’’
विवाह की बात पर मन की लगाम को छोड़ना था कि महेन्द्र के लिए धीरज रखना कठिन हो गया। उसके जी में आया-‘बातों में वक्त जाया न करके विवाह हो ही जाए तो अच्छा है।’ उसने मां को जाकर कहा-‘‘अच्छा मां, तुम्हारा आग्रह अब न टालूंगा। मैं विवाह करने को तैयार हूं।’’
मां मन ही मन बोलीं-‘‘समझ गई मैं, उस दिन अचानक क्यों मंझली बहू अपनी भांजी को देखने चली गई और क्यों महेन्द्र बन-ठनकर घर से निकला।’
उनके अनुरोध की बार-बार उपेक्षा होती रही और अन्नपूर्णा की साजिश कारगार हो गई, इस बात से वह नाराज हो उठीं और बोली-‘‘अच्छा, मैं किसी अच्छी-सी लड़की की खोज करती हूं।’’
महेन्द्र ने कहा-‘‘लड़की तो मिल चुकी है।’’
राजलक्ष्मी उसके बिना कुछ बताए बोलीं-‘उस लड़की से विवाह नहीं हो सकेगा, यह मैं कहे देती हूं।’’
महेन्द्र ने संयत शब्दों में कहा-‘‘क्यों मां, लड़की तो बुरी नहीं है।’’
राजलक्ष्मी-‘‘उसके तीनों कुल में कोई नहीं। ऐसी लड़की से विवाह रचकर अपने कुटुम्ब को क्या सुख मिलेगा ?’’
महेन्द्र-‘‘कुटुम्ब को सुख चाहे न हो, मगर मैं दुखी न रहूंगा। लड़की मुझे खूब पसंद आई।’’
महेन्द्र को जिद करते देख राजलक्ष्मी भीतर ही भीतर उबल पड़ी। महेन्द्र को तो वह कुछ कह न पाई, मगर मौका मिलते ही अन्नपूर्णा के पास जा पहुंची और जले-कटे स्वर में बोली-‘‘एक मां-बाप विहीना अभागिन लड़की से विवाह कराकर तुम मेरे लड़के को मुझसे फोड़ लेना चाहती हो ? तुम्हारी यह मजाल ?’’
अन्नपूर्णा रोने लगी और बोली-‘‘उससे तो शादी की कोई बात ही नहीं हुई, उसने बना-बनूकर तुम्हें क्या कहा, इसकी खबर मुझे नहीं।’’
महेन्द्र को जब पता चला कि देखने का दिन पक्का हो गया है तो बोला-‘‘चाची, इतनी जल्दी क्यों की ? बिहारी से तो मैंने अभी जिक्र तक नहीं किया है।’’
अन्नपूर्णा बोलीं-‘‘ऐसा भी होता है भला ! अब अगर तुम लोग न जाओ तो वे क्या सोचेंगे ?’’
महेन्द्र ने बिहारी को बुलाकर सारी बातें बताईं और उसके ना-नुकर करने से पहले ही-‘‘चलो तो सही, लड़की न जंची तो तुम्हें मजबूर थोड़े ही किया जाएगा, इन्कार कर देना।’’
बिहारी बोला-‘‘यह मैं नहीं कर सकता। चाची की भांजी को देखने जाना है। देखकर मेरे मुंह से यह बात हरगिज न निकल सकेगी कि लड़की मुझे पसंद नहीं।’’
महेन्द्र ने कहा-‘‘फिर तो ठीक ही है।’’
बिहारी बोला-‘‘लेकिन तुम्हारी तरफ से यह ज्यादती हुई है, महेन्द्र भैया ! खुद तो हल्के हो जाएं और दूसरे के कंधे पर बोझ रख दें, यह उचित नहीं है। अब चाची का मन दुखाना मेरे लिए बहुत ही कठिन है।’’
महेन्द्र कुछ शर्मिन्दा और नाराज होकर बोला-‘‘आखिर इरादा क्या है तुम्हारा ?’’
बिहारी बोला-‘‘मेरे नाम पर जब तुमने उन्हें उम्मीद दिलाई तो मैं विवाह करूंगा। यह देखने जाने का ढोंग बेकार है।’’
बिहारी अन्नपूर्णा की देवी की भांति भक्ति करता था। आखिर अन्नपूर्णा ने खुद बिहारी को बुलवाकर कहा-‘‘ऐसा भी कहीं होता है, बेटे ? लड़की देखे बिना वही विवाह करोगे, यह हरगिज न होगा। लड़की पसंद न आए तो अपनी सम्मति तुम नहीं दे सकते, तुम्हें मेरी शपथ है। लड़की देखने अवश्य़ जाओ।’’
जाने के दिन कॉलेज से लौटकर महेन्द्र ने मां से कहा-‘‘जरा मेरा वह रेशमी कुरता और ढाका वाली धोती निकाल दो।’’
मां ने पूछा-‘‘क्यों, कहां जाना है ?’’
महेन्द्र बोला-‘‘काम है, तुम ला दो, फिर बताऊंगा।’’
महेन्द्र थोड़ा संवरे बिना न रह सका। दूसरे के लिए ही क्यों न हो, कन्या देखने की बात से ही यौवन-धर्म स्वयं बाल संवार लेता है, चादर में थोड़ी खुशबू मल लेता है।
दोनों दोस्त लड़की देखने निकल पड़े।
लड़की के बड़े चाचा अनुकूल बाबू ने अपनी कमाई से अपना बाग वाला तिमंजिला मकान मुहल्ले में सबसे ऊंचा बना रखा है।
गरीब भाई की मां-बाप-विहीना बेटी को उन्होंने अपने ही यहां रखा है। उसकी मौसी अन्नपूर्णा ने कहा था, मेरे पास रहने दो। इससे खर्च की कमी जरूर होती, लेकिन समाज में गौरव कम हो जाने के डर से अनुकूल बाबू राजी न हुए। यहां तक कि भेंट-मुलाकात के लिए भी कभी उसे मौसी के यहां नहीं जाने देते थे। अपनी मर्यादा के बारे में इतने ही सख्त थे वे।
लड़की के विवाह की चिंता का समय आया, लेकिन इन दिनों विवाह के विषय में ‘यादृशी भावना यस्य सिद्धर्भवति तादृशी’ वाली बात लागू नहीं होती। चिंता के साथ-साथ लागत भी लगती। परन्तु दहेज की बात उठते ही अनुकूल बाबू कहते-‘मेरे भी तो अपनी लड़की है, अकेले मुझसे कितना करते बनेगा।’
इसी तरह दिन निकलते जा रहे थे। ऐसे में बन-संवरकर खुशबू बिखेरते हुए रंगभूमि में अपने दोस्त के साथ महेन्द्र ने प्रवेश किया।
चैत का महीना। सूरज अस्त होने को है। दुमंजिले का दक्षिणी बरामदा चिकने चीनी टाइलों का बना है, उसी के एक ओर दोनों मेहमानों के लिए फल-फलू, मिठाई से भरी चांदी की तश्तरियां रखी गईं, बर्फ के पानी-भरे गिलास रखे हैं। बिहारी के साथ महेन्द्र सकुचाते हुए खाने बैठा। नीचे माली पौधौं में पानी डाल रहा था और भीगी मिट्टी की सोंधी सुगन्ध लिए दक्खिनी हवा महेन्द्र की धप्-धप् धुली चादर के छोर को दुर्दाम किए दे रही थी। आस-पास के दरवाजे के झरोखों की ओट से कभी-कभी दबी हंसी, फुसफुसाहट, कभी-कभीगहनों की खनखनाहट।
खाना खत्म हो चुका तो अन्दर की तरफ देखते अनुकूल बाबू ने कहा-‘चुन्नी, पान तो ले आ, बेटी !’’
कुछ देर में संकोच से पीछे का दरवाजा खुला और संसार भर की लाज से सिमटी एक लड़की हाथ में पानदान लिए अनुकूल बाबू के पास आकर खड़ी हुई। अनुकूल बाबू बोले-‘‘शर्म काहे की बिटिया, पानदान उनके सामने रखो।’’
उसने झुककर कांपते हाथों से मेहमानों की बगल में पानदान रख दिया। बरामदे के पश्चिमी छोर से डूबते सूरज की रक्तिम आभा उसके लज्जित मुखड़े को मंडित कर गई। इसी मौके पर महेन्द्र ने कांपती हुई लड़की के करुण मुख की झलक देख ली।
बालिका जाने लगी। अनुकूल बाबू बोले-‘‘जरा ठहर जा, चुन्नी ! बिहारी बाबू, यह है छोटे भाई अपूर्व की लड़की, अपूर्व तो चल बसा, अब मेरे सिवाय इसका कोई नहीं।’’
और उन्होंने एक लम्बी उसांस ली। महेन्द्र के मन को दया की ठोकर लगी। उस अनाथ लड़की की तरफ उसने एक बार फिर देखा।
उसकी उम्र साफ-साफ कोई न बताता। सगे-संबंधी कहते, बारह-तेरह होगी।
यानी चौदह-पन्द्रह होने की संभावना ही ज्यादा थी। लेकिन चूंकि दया पर चल रही थी, इसलिए एक सहमे से डरे भाव ने उसके नवयौवन के आरंभ को जब्त सा कर रखा था।
महेन्द्र ने पूछा-‘‘तुम्हारा नाम ?’’
अनुकूल बाबू ने उत्साह दिया-‘‘बता बेटी, अपना नाम बता !’’
अपने अभ्यस्त आदेश-पालन के ढंग से झुककर उसने कहा-‘‘जी, मेरा नाम आशालता है।’’
आशा ! महेन्द्र को लगा, नाम बड़ा ही करुण और स्वर बड़ा कोमल है। अनाथा आशा ! दोनों मित्रों ने बाहर सड़क पर आकर गाड़ी छोड़ दी। महेन्द्र बोला-‘‘बिहारी, इस लड़की को तुम हर्गिज मत छोड़ो ?’’
बिहारी ने इसका कुछ साफ जवाब न दिया। बोला-‘‘इसे देखकर इसकी मौसी याद आ जाती है। वैसी ही भली होगी शायद !’’
महेन्द्र ने कहा-‘‘जो बोझा तुम्हारे कंधे पर लाद दिया, अब वह शायद वैसा भारी नहीं लग रहा है।’’
बिहारी ने कहा-‘‘नहीं, लगता है, ढो ले जाऊंगा।’’
महेन्द्र बोला-‘‘इतनी तकलीफ उठाने की जरूरत भी क्या है ? तुम्हारा यह भार न हो तो मैं ही उठा लूं। क्या खयाल है ?’’
बिहारी ने गम्भीर होकर महेन्द्र की तरफ देखा। बोला-‘‘क्या कहना चाहते हो ? अब भी ठीक-ठीक बता दो। यह शादी तुम कर लो तो चाची कहीं ज्यादा खुश होंगी-उन्हें उसे सदा पास रखने का मौका मिलेगा।’’
महेन्द्र बोला-‘‘पागल हो तुम ! ऐसा होना होता तो कब का हो चुका होता।’’
बिहारी ने कोई एतराज न किया। वह अपने घर चला गया और महेन्द्र भी सीधी राह छोड़कर घूमता-घामता बड़ी देर से घर पहुंचा।
मां पूरियां बना रही थीं। चाची अब तक भी अपनी भांजी के पास से लौटकर नहीं आई थीं।
महेन्द्र छत पर गया और चटाई बिछाकर लेट गया। कलकत्ता की ऊंची इमारतों की शीर्षों पर शुक्ला सप्तमी का अर्धचन्द्र अपनी अनोखी छठा बिखेर रहा था। मां जब खाने के लिए बुलाने आईं, तो महेन्द्र ने अलसाए स्वर में कहा-‘‘छोड़ो, अब उठने् को जी नहीं चाहता।’’
मां ने पूछा-‘‘तो यहीं ले आऊं ?’’
महेन्द्र बोला-‘‘आज नहीं खाऊंगा। मैं खाकर आया हूं।’’
मां ने पूछा-‘‘कहां खाने गया था ?’’
महेन्द्र बोला-‘‘वह लम्बी दास्तान है, फिर कभी सुनाऊंगा।’’
महेन्द्र के इस व्यवहार से अभिमानी मां बिना कुछ कहे ही लौटने लगी। इतने में अपने को जब्त करके महेन्द्र ने कहा-‘‘मां, अच्छा, मेरा खाना यहीं ले आओ !’’
मां ने कहा-‘‘भूख नहीं है तो रहने दो !’’
जरा देर तक इसी पर मां-बेटे का रूठना-मचलना चलता रहा और अन्त में महेन्द्र को भोजन करना पड़ा।
रात में महेन्द्र को न जाने क्यों अच्छी तरह नींद नहीं आई। सुहब तड़के ही वह बिहारी के घर जा पहुंचा। बोला-‘‘भई, मैंने खूब गौर किया है कि चाची की आंतरिक इच्छा यही है कि मैं ही उनकी भतीजी से विवाह करूं।’’
बिहारी बोला-‘‘इसके लिए नए सिरे से सोचने की तो कोई जरूरत न थी। यह इच्छा तो उन्होंने अनेक प्रकार से जाहिर की है।’’
महेन्द्र बोला-‘‘तभी तो कहता हूं, मैं अगर आशा से विवाह न करूं, तो उनके मन में इसका खेद रह जाएगा।’’
बिहारी बोला-‘‘हो सकता है !’’
‘‘मेरा खयाल है, यह मेरा ज्यादती होगी।’’ महेन्द्र ने कहा।
जरा अस्वाभाविक उत्साह से बिहारी ने कहा-‘‘ठीक तो है। इससे अच्छी बात क्या हो सकती है ? तुम तैयार हो जाओ तो कुछ रह ही नहीं जाता। लेकिन फर्ज का यह खयाल तुम्हारे दिमाग में कल ही आया होता तो अच्छा था।’’
महेन्द्र-‘‘एक दिन बाद ही आया, तो क्या बुरा हो गया ?’’
विवाह की बात पर मन की लगाम को छोड़ना था कि महेन्द्र के लिए धीरज रखना कठिन हो गया। उसके जी में आया-‘बातों में वक्त जाया न करके विवाह हो ही जाए तो अच्छा है।’ उसने मां को जाकर कहा-‘‘अच्छा मां, तुम्हारा आग्रह अब न टालूंगा। मैं विवाह करने को तैयार हूं।’’
मां मन ही मन बोलीं-‘‘समझ गई मैं, उस दिन अचानक क्यों मंझली बहू अपनी भांजी को देखने चली गई और क्यों महेन्द्र बन-ठनकर घर से निकला।’
उनके अनुरोध की बार-बार उपेक्षा होती रही और अन्नपूर्णा की साजिश कारगार हो गई, इस बात से वह नाराज हो उठीं और बोली-‘‘अच्छा, मैं किसी अच्छी-सी लड़की की खोज करती हूं।’’
महेन्द्र ने कहा-‘‘लड़की तो मिल चुकी है।’’
राजलक्ष्मी उसके बिना कुछ बताए बोलीं-‘उस लड़की से विवाह नहीं हो सकेगा, यह मैं कहे देती हूं।’’
महेन्द्र ने संयत शब्दों में कहा-‘‘क्यों मां, लड़की तो बुरी नहीं है।’’
राजलक्ष्मी-‘‘उसके तीनों कुल में कोई नहीं। ऐसी लड़की से विवाह रचकर अपने कुटुम्ब को क्या सुख मिलेगा ?’’
महेन्द्र-‘‘कुटुम्ब को सुख चाहे न हो, मगर मैं दुखी न रहूंगा। लड़की मुझे खूब पसंद आई।’’
महेन्द्र को जिद करते देख राजलक्ष्मी भीतर ही भीतर उबल पड़ी। महेन्द्र को तो वह कुछ कह न पाई, मगर मौका मिलते ही अन्नपूर्णा के पास जा पहुंची और जले-कटे स्वर में बोली-‘‘एक मां-बाप विहीना अभागिन लड़की से विवाह कराकर तुम मेरे लड़के को मुझसे फोड़ लेना चाहती हो ? तुम्हारी यह मजाल ?’’
अन्नपूर्णा रोने लगी और बोली-‘‘उससे तो शादी की कोई बात ही नहीं हुई, उसने बना-बनूकर तुम्हें क्या कहा, इसकी खबर मुझे नहीं।’’
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